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किसान आंदोलन: कृषि क़ानूनों पर जारी विरोध में कहाँ हैं भूमिहीन महिला किसान?

“खेती करते-करते सत्रह बरस बीत गए हैं. अब तक सरकार से कोई ख़ास मदद नहीं मिली है. आगे का पता नहीं. हम अपने खेत में सब्ज़ी उगा लेते हैं और उसे बेच लेते हैं जिससे कुछ कमाई हो जाती है. लेकिन अब सुन रहे हैं कि बड़ी कंपनियां गाँव आकर खेती करेंगी. अभी तो हमें तीन हज़ार रुपये साल पर दो बीघा ज़मीन बटाई पर मिल जाती है. कल को कोई कंपनी इसी दो बीघा के लिए ज़मीन वाले को 5000 रुपये दे देगी तो हमारे पास मज़दूरी करने के अलावा क्या विकल्प बचेगा?”

ये शब्द उत्तर प्रदेश की एक भूमिहीन महिला किसान शीला के हैं. शीला किराए पर लिए दो बीघे के खेत में सब्ज़ियां उगाती हैं और सब्ज़ियों को बेचकर ही अपना गुज़ारा करती हैं.

शीला बताती हैं कि बटाई पर लिए खेत पर काम करते हुए वे हर साल ख़र्चा निकालकर दस हज़ार रुपये तक बचा लेती थीं.

लेकिन जब वह खेती नहीं कर रही होती हैं तो उन्हें सिर्फ़ मज़दूरी पर निर्भर रहना पड़ता है जो कि प्रतिदिन 200 रुपये से 250 रुपये के बीच मिलती है.

किसान आंदोलन में कहाँ हैं भूमिहीन किसान महिलाएँ

भारत में जहां एक ओर व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है. देश भर में किसान केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करके इन तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए दबाव बना रहे हैं.

लेकिन कृषि अर्थव्यवस्था में आख़िरी पंक्ति में खड़ीं भूमिहीन महिला किसानों की इस आंदोलन में उपस्थिति बेहद कम है.

आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण साल 2018-19 के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फ़ीसद महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं. वहीं, पुरुषों का प्रतिशत मात्र 53.2 फ़ीसद है.

इसके साथ ही आँकड़े ये भी बताते हैं कि खेतिहर मज़दूर वर्ग में भी महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा है.

ऐसे में सवाल उठता है कि भारत में महिला किसानों का इन कृषि क़ानूनों को लेकर क्या रुख़ है.

भूमिहीनता एक बड़ी वजह

भारत में क़ानूनी रूप से सिर्फ़ उन्हीं महिला किसानों को किसान का दर्जा दिया जाता है जिनके नाम पर भूमि का पट्टा होता है.

उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र से आने वालीं भूमिहीन महिला किसान रामबेटी मानती हैं कि आंदोलन में महिला किसानों की कम संख्या की वजह जानकारी का अभाव है.

रामबेटी बीते कुछ समय से गाँव-गाँव घूमकर महिला किसानों को इन कृषि क़ानूनों से अवगत कराने की कोशिश कर रही हैं.

भूमिहीन महिला किसानों के साथ लंबी बातचीतों के अपने अनुभव साझा करते हुए रामबेटी कहती हैं, “असल बात ये है कि महिलाओं को पता ही नहीं है कि ये कृषि क़ानून उनके लिए कितने ख़तरनाक साबित हो सकते हैं. गाँव तक जानकारी ही नहीं पहुँची है. लेकिन धीरे धीरे ये जानकारी पहुंच रही है.”

हालांकि, पंजाब से आने वाली किरनजीत कौर मानती हैं कि “महिला किसान अपने स्तर से इन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रही हैं. पंजाब में जगह जगह पर विरोध प्रदर्शन जारी हैं. ऐसे में महिलाएं अपने खेत और बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने के बाद विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रही हैं. लेकिन ये वक़्त ऐसा है जब पंजाब की महिलाएं और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर अपने गाँवों को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. पहला क़दम ये है कि इन क़ानूनों को वापस कराना. और हम ये हासिल करके रहेंगे.”

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क्या नुक़सान पहुंचा सकते हैं कृषि क़ानून?

किसान संगठनों का मानना है कि इन कृषि क़ानूनों की वजह से उनका भविष्य ख़तरे में पड़ सकता है.

लेकिन रामबेटी जैसे किसानों समेत कृषि क्षेत्र के कई विशेषज्ञ मानते हैं इन क़ानूनों से कृषि कार्यों में लगी महिलाओं को भारी नुक़सान हो सकता है.

राम बेटी बताती हैं, “महिलाओं को इन तीन क़ानूनों से जो सबसे बड़ा नुक़सान हो सकता है, वो ये है कि सरकार आवश्यक वस्तुओं जो कि खाने वाली चीज़ें हैं, उन्हें अपने हाथ से बाहर कर रही है. कंपनियों के हाथ में अधिकार जाने से ये होगा कि जो हम अपनी चीज़ देंगे, उसे वे सस्ते में लेंगी. लेकिन अगर हम उनका सामान ख़रीदेंगे तो वह महंगा मिलेगा.”

रामबेटी कोरोना दौर का उदाहरण देते हुए अपनी चिंताएं समझाती हैं.

वे कहती हैं, “अभी कोरोना दौर में सरकार के पास राशन था तो सरकार ने राशन की पूर्ति की है. लेकिन जब ये राशन कंपनियों के पास पहुँच जाएगा तो ये फ्री नहीं मिलेगा. ऐसे में हम कंपनियों के भरोसे हो जाएंगे, कंपनियों की मर्ज़ी होगी तो वो हमें देंगे. मर्ज़ी नहीं होगी तो हमें राशन नहीं मिलेगा.”

“दूसरी दिक़्क़त ये है कि हम भूमिहीन किसान हैं और हम ठेके पर लेकर किसानी करते हैं. अब हम दो हज़ार रुपया बीघा ले रहे हैं. और जब कंपनी आ जाएगी और वह पाँच हज़ार रुपये बीघे का प्रस्ताव रखेंगे तो ज़मीन मालिक/किसान हमें थोड़े ही अपने खेत देंगे. इस वजह से हम जैसे भूमिहीन महिला किसानों को दिक़्क़त हो जाएगी. और कंपनियां पहले तो उन्हें लालच देंगी लेकिन फिर उन्हें फंसा लेंगी. उन्हें अपना बीज, अपनी खाद देगी और अपने हिसाब से खेती कराएंगी.”

“अभी हम अपने खेत पर अपने खाने के लिए गन्ना, मूंगफली, शकरकंद जैसी चीजें उगा लेते हैं. लेकिन जब कंपनी ठेका लेगी तो कंपनी अपने हिसाब से खेती कराएगी. वो कहेंगे तो कपास उगेगा, वो कहेंगे तो नील की खेती करना है तो हमें नील की खेती करनी पड़ेगी. फिर हम खाने-पीने की चीज़ें अपने खेत में नहीं बो पाएंगे.”

लेकिन कृषि अर्थव्यवस्था में आख़िरी पंक्ति में खड़ीं भूमिहीन महिला किसानों की इस आंदोलन में उपस्थिति बेहद कम है.

आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण साल 2018-19 के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फ़ीसद महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं. वहीं, पुरुषों का प्रतिशत मात्र 53.2 फ़ीसद है.

इसके साथ ही आँकड़े ये भी बताते हैं कि खेतिहर मज़दूर वर्ग में भी महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा है.

ऐसे में सवाल उठता है कि भारत में महिला किसानों का इन कृषि क़ानूनों को लेकर क्या रुख़ है.

बढ़ेगा संकट

उत्तर प्रदेश में भूमिहीन महिला किसानों के सशक्तिकरण में लगी संस्था पानी संस्थान के सचिव भारत भूषण मानते हैं कि अनुबंधीय खेती होने की स्थिति में भूमिहीन महिला किसानों की समस्याओं में इजाफा होगा.

वे कहते हैं, “इस क़ानून में अनुबंधीय खेती को लेकर जो प्रावधान है, वो कहीं न कहीं भूमिहीन महिला किसानों की संख्या में बढ़ोतरी करेगा. और ये स्पष्ट है कि सरकार ने इन तीन क़ानूनों में इस तबक़े को नज़रअंदाज़ किया गया है.”

वहीं महिला किसानों के उत्थान के लिए कार्यरत एक अन्य विशेषज्ञ सुधा मानती हैं कि “भूमिहीन किसानों को ये डर सता रहा है कि अगर कंपनियां आ जाती है तो क्या होगा. लोग अपने गाँव में ही किसी परिचित व्यक्ति की जमीन को किराए पर लेकर खेती करते हैं. अब कंपनियां अगर आने लगती हैं तो इन किसानों को खेती करने के लिए किराए पर ज़मीन नहीं मिलेगी. ये किसानों का एक बड़ा डर है.”

”न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर भी एक बात ये है कि भले ही किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से दो-तीन रुपये कम मिलते हों लेकिन एक मंडी है. अब अगर कोई रेट न हो तो किसान पूरी तरह बाज़ार के भरोसे हो जाएंगे. टमाटर या जल्दी ख़राब होने वाली पैदावार के मामले में अक्सर देखा जाता है कि किसान पूरी तरह से बाज़ार के ग़ुलाम हो जाते हैं. चूंकि इस किसान वर्ग के पास अपनी फसल को रोकने का समय नहीं होता है तो उन्हें औने-पौने दामों में अपनी फ़सल बेचनी पड़ती है.”

“मंडी सिस्टम में कई ख़ामियां हैं. और उन ख़ामियों को दूर किए जाने की ज़रूरत है. कई विशेषज्ञों ने इस पर अपने सुझाव भी दिए हैं. लेकिन इस पूरे सिस्टम को हटा देना कितना जायज़ है. मान लीजिए कि कुछ कंपनियां ऐसी होंगी जो किसान के सूचना देते ही अपने एजेंट भेज देंगी. लेकिन ये तो किसान के लिए मजबूरी का सौदा हुआ. और कौन सी कंपनी है जो कि बेचने वाले की मजबूरी में उससे अच्छे दाम पर फ़सल ख़रीदती है.”

आशा की किरण

लेकिन भूमिहीन महिला किसानों के साथ बातचीत में एक बात निकलकर आ रही है कि वे चाहती हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम ख़रीद को अवैध क़रार दे.

कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा मानते हैं कि अगर ये हो जाता है तो इससे भूमिहीन किसानों को भी फ़ायदा होगा.

वे कहते हैं, “अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी पैदावार बेचना किसान का एक क़ानूनी अधिकार बन जाए तो इससे हमारी बहुत सारी समस्याओं का समाधान मिल जाएगा.”

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